गुरुवार, 20 मार्च 2008

ध्रतराष्ट्र बने संपादक , दुःशासन हुई पत्रकारिता और सभा में नंगी करी गयी तुम सबकी लैंगिक विकलांग बहनें

गुस्सा और दुःख इतना ज्यादा है कि लग रहा है खूब जोर से चिल्लाऊं । जब तक भड़ास से नहीं जुड़ी थी यकीन मानिए कि शर्म क्या होती है पता ही नहीं था लेकिन डा.रूपेश श्रीवास्तव ने मुझे अपनी बहन बना कर मेरी जिन्दगी में इतना ज्यादा बदलाव ला दिया है कि जब मेरे और मेरी ही जैसी दूसरी लैंगिक विकलांग बहनों के सारे कपड़े उतरवा कर परेड करवाई गई तो एक पल को लगा कि लोकल ट्रेन से कट कर जान दे दूं लेकिन अगले ही पल मेरी आंखों के सामने मेरे डा.भाई का चेहरा आ गया जो हमेशा मुझे हिम्मत दिलाते रहते हैं कि दीदी एक दिन ऐसा जरूर आएगा कि ये लोग जो आपको इंसान नही समझते अपने करे पर शर्मिंदा होंगे ; फिर एक-एक करके मेरे सामने मेरे भाई पंडित हरे प्रकाश,यशवंत दादा,मनीष भाई,चंद्रभूषण भाई सामने आने लगे और मैं फिर पूरी ताकत से अन्याय का सामना करने के लिये खड़ी हो गयी हूं । मुंबई से प्रकाशित होने वाले मराठी दैनिक वार्ताहर और उर्दू दैनिक इन्कलाब ने एक खबर छापी जिसकी हैडिंग उन्होंने महज सनसनी फैलाने के लिये ऐसी रखी कि लोग उस खबर को चटखारे लेकर पढ़ें ,जरा आप सब खबर के हैडिंग पर ध्यान दीजिये "हिजड़े द्वारा लोकल ट्रेन के लेडीज़ कम्पार्टमेंट में महिला से बलात्कार की कोशिश" । बस फिर क्या था बड़ी-बड़ी वारदातें हो जाने के बाद भी कुम्भकर्ण की तरह से सोने वाली मुंबई पुलिस का लैंगिक विकलांग लोगों पर कहर टूट पड़ा । हम सफर करें तो ट्रेन के किस डिब्बे में अगर पुरुषों के साथ जाएं तो सुअर किस्म के लोग जिस्म रगड़ने का बहाना देखते हैं ,कुत्सित यौन मानसिकता के नीच पुरुष भीड़ का बहाना कर के सीने और नितंबों पर हाथ लगाते हैं ,हमारे हाथॊं को पकड़्ते हैं पर हमें तो शर्म नहीं आनी चाहिए और न ही हमें गुस्सा आना चाहिये इन कमीनों की हरकत पर क्योंकि शर्म तो नारी का गहना होती है और हम तो न नारी हैं न नर । महिलाओं के डिब्बे में जाओ तो कुछ सुरक्षित महसूस होता था लेकिन इस सभ्य समाज के मुख्यधारा की पत्रकारिता के इस हथियार ने हमें यहां से उखाड़ कर बेदखल कर दिया है । ध्यान दीजिये कि अगर कोई अपराधी किस्म का इंसान बुर्का पहन कर ऐसी नीच हरकत करता तो क्या ये पत्रकार और संपादक महोदय ये हैडिंग बनाते कि एक मुसलमान महिला ने दूसरी महिला के साथ बलात्कार करने की कोशिश करी ,नहीं ,ऐसा तो वे हरगिज़ नही करते क्योंकि इस बात से सनसनी नहीं फैल पाती लेकिन एक हिजड़े के बारे में ऐसा लिखा तो सबका ध्यान जाएगा । अरे कोई तो इन गधे की औलादों को समझाए कि अगर हिजड़ा है तो बलात्कार क्या पैर के अंगूठे से करेगा ,वो तो महज एक अपराधी था जो हिजड़े का वेश बना कर आया था । संपादक की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वो ये देखे कि ऐसी खबर का क्या परिणाम होगा । अब मुझे समझ में आ रहा है कि देश में जातीय दंगों को फैलाने में मीडिया का क्या रोल रहता है ,अगर किसी ने मौलाना का वेश बना कर किसी को गोली मार दी तो ये पहले मरने वाले को देखेंगे कि क्या वो हिंदू था और फिर खबर बनाएंगे कि मुसलमान ने हिंदू की हत्या कर दी फिर भले पूरे देश में जातीय दंगों की आग भड़क कर सब स्वाहा हो जाए । हिजड़े को निशाना बना कर खबर छाप दी और चालू हो गया पुलिस का धंधा ,सब को नंगा करके परेड कराई गई ताकि देखा जा सके किसके जननांग कितने विकसित हैं या क्या है हिजड़े की कमर के नीचे और टांगो के बीच में ? इन कमीने पत्रकारों को अगर इतनी ही चिंता है तो क्यों नहीं अपनी ताकत इस्तेमाल करके जेंडर आईडेंटीफ़िकेशन का कानून बनाने के लिये सरकार पर दबाव बनाते ? कम से कम हमें भी तो ये पता चल जाएगा कि हम किस डिब्बे में यात्रा करें । किसी पत्रकार ने रेलवे पुलिस से यह नहीं पूछा कि जब हर महिला डिब्बे में एक रेलवे पुलिस का सुरक्षाकर्मी तैनात रहता है तो जब वो अपराधी बलात्कार की कोशिश कर रहा था तो क्या वो पुलिस वाला तमाशा देख रहा था या अपनी अम्मा के साथ सोने गया था , क्या यात्रियों की सुरक्षा की रेलवे की कोई जिम्मेदारी नहीं है ? मैने नीच पुलिस वालों के हाथॊं को अपने जिस्म पर रेंगते हुए महसूस किया ,ये सुअर किसी गंदी दिमागी बीमारी के मरीज जान पड़े मुझे सारे के सारे । क्या मेरी इस अस्तित्व की लड़ाई में मेरे भड़ासी भाई-बहनें साथ हैं ये सवाल आप सब से है ,नाराज मत होइएगा कि ये क्या होली के रंग में तेज़ाब मिला रही है लेकिन बात ही ऐसी है । मेरे भाई डा.रूपेश अभी आधी रात को भी मेरे साथ हैं कि कहीं शर्मिन्दगी से मैं कुछ गलत निर्णय न ले लूं इस लिये जबरदस्ती मुझे पकड़ कर अपने घर ले आए हैं । होली मनाइए लेकिन अपनी इस बदकिस्मत बहन के बारे में भी सोचियेगा ।

शुक्रवार, 14 मार्च 2008

हिंजड़ा होने की मानसिक व्यथा की अभिव्यक्ति पर प्रश्नचिह्न

आदरणीय सुनील दीपक जी के कमेंट्स को देखकर लगने लगा है कि मैं देश की मानवों द्वारा बनाई सीमाओं से पार निकल आई हूं और अब मानवता की सीमा के भीतर मेरे दर्द को देखने वाले लोग आगे आ रहे हैं । मेरे गुरुदेव और मार्गदर्शक पूज्यनीय डा.रूपेश श्रीवास्तव जी की ये पंक्तियां आपको अजीब लगीं "अंधा,बहरा या मनोरोगी तो नहीं था मैं" , दरअसल जिस सच की यह अभिव्यक्ति है वह काव्यात्मक होने या तुकान्त होने के कारण आपको कविता प्रतीत हुई लेकिन यही सत्य है कि मैंने एक लैंगिक विकलांग होकर भी इन सबसे खुद को अधिक सक्षम किन्तु अधिक शोषित पाया है हमें जीवन यापन के लिये भीख मांगनी पड़ती है ,गंदा काम करना पड़ता है क्योंकि लोग हमें नौकरी देने में हिचकिचाते हैं जबकि विकलांगों का तो नौकरियों में आरक्षित कोटा है ,हां मनोरोगी बच्चों के ऊपर यह बात लागू नहीं होती दुर्भाग्य से ;हम कुछ लोग मिल कर डा.साहब के मार्गदर्शन में भविष्य में ऐसे बच्चों के लिये बड़ा सा घर बनाने की योजना रखते हैं जिसमें हम सब मिल कर मां होने का एहसास कर पाएंगे और बच्चों को भी कुछ बेहतर दे सकेंगे । किन्तु यदि आपकी कोमल भावनाओं को इन पंक्तियों से ठेस पहुंची है तो मैं हम सब की तरफ से क्षमाप्रार्थी हूं । ऐसे ही प्रेम और अनुराग बनाए रखिए इससे हमें बल मिलता है और साथ ही आपका सहृदय मार्गदर्शन भी अपेक्षित है ।Sunil Deepak ने कहा…
कविता सुंदर है और हिंजड़ा होने की मानसिक व्यथा को अच्छी तरह व्यक्त करती है. लेकिन इन पंक्तियों को देख कर थोड़ा अजीब लगाः "अंधा,बहरा या मनोरोगी तो नहीं था मैं"अंधा हो या बहरा या मनोरोगी या कुष्ठरोगी या लैंगिक विकलाँग, सभी को समाज हाशिये से बाहर करता है, सभि का शोषण करता है, सभी के साथ अन्याय होता है. हमारे आसपास खड़ी यह दीवारें मिल कर ही टूट सकती हैं, अगर हम लोग आपस में ही एक दूसरे को नीचा ऊँचा देखेंगे तो बँटे रहेंगे, कमज़ोर रहेगें, और दीवारें न तोड़ पायेंगे.सुनील
March 14, 2008 1:35 PM
आपकी टिप्पणी और मेरे उत्तर को एक पोस्ट के रूप में डाल रही हूं विश्वास है कि आप अन्यथा न लेंगे ।
नमस्ते

मुझ पर कहानी लिखना चाहते हैं ,दिल से शुक्रिया...

आदर के योग्य हैं आप जो हम जैसे तिरस्कार व बहिष्कार करे गये लोगों के बारे में कुछ भला सोचते हैं । आपने कहा है कि आप मेरे ऊपर कहानी लिखना चाहते हैं तो मेरे लिये यह बुरा मानने की नहीं बल्कि अपने भाग्य को सराहने की बात है । लेकिन घूम फिर कर दुर्दैव है कि वहीं ले आता है , आपको मेरा मोबाइल नंबर चाहिये । आपसे एक बात निवेदन करना चाहती हूं कि जैसा कि मैंने अपने पिछले पोस्ट्स में लिखा है कि दुनिया बस स्त्री-पुरूष में विभाजित है इसमें हमारा स्थान तो है ही नहीं ,हम तो बस एक बोझ की तरह हैं । आप जानते हैं कि मोबाइल के लिये फोटो आई.डी. अनिवार्य होता है और उसके लिये मैं पैनकार्ड , ड्राइविंग लायसेन्स या पासपोर्ट जैसी चीज कहां से लेकर आऊं ? हमें तो सरकार को राशन कार्ड देने में भी हिचकिचाती है यानि सरकार मानती है कि हमें भोजन तक की आवश्यकता नहीं है । इसलिये आपसे प्रार्थना है कि अगर कोई विशेष बात न हो कि मोबाइल नंबर अत्यावश्यक हो तो आप मेरे गुरूदेव , मार्गदर्शक , भाई और पिता समान डा.रूपेश श्रीवास्तव का नंबर ले लीजिये (09224496555) उनके मोबाइल से जैसा आप चाहेंगे तो मुझे संदेश भी मिल जाएगा और यदि आप चाहें तो बात कर सकते हैं पर समय निर्धारित करने के बाद ही । बातें कुछ ज्यादा ही भारी हो गयी हैं इस लिये जरा सा मज़ाक करने की इजाजत दीजिये ; अगर आप में साहस है तो एक (लैंगिक विकलांग) हिजड़े के लिये हिजड़ा आईडेन्टिटी बता कर मोबाइल खरीद कर गिफ़्ट कर दीजिये । मेरी इस बात का तनिक भी बुरा मत मानियेगा क्योंकि यही वह जगह है जहां मैं अनदेखे मित्रों से सचमुच मजाक करके हंस लेती हूं वरना तो जिन्दगी में इतना अधूरापन है कि बताने को शब्द ही नहीं हैं । एक बार फिर से मेरी ओर ध्यान देने के लिये आपका और उस अनदेखे ईश्वर का धन्यवाद । मुझे आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी ........
नमस्ते

सोमवार, 10 मार्च 2008

मैं कोई बड़ा ग्राहक हूं

आज पहली बार किसी ऐसे मुद्दे पर लिखने की कोशिश करती हूं कि जो शायद मेरे जैसे लैंगिक विकलांग लोगो से संबंधित नहीं है । कल मैं रेड लाइट एरिया में वीकली रिपोर्ट क्लेक्ट करने गयी थी । हमारे डा. भाई के बार बार बोलने पर उनका दिया हुआ खादी का कुर्ता पैजामा पहन कर गयी । मुझे साड़ी पहनने की आदत है तो कुछ और पहनना अजीब लगता है । उधर जाने पर एक घटना हुई जो आप बड़ी-बड़ी बाते बताने वालों के लिये दिलचस्प न हो क्योंकि मैं दुनिया देश और समाज की बड़ी बातों के बारे में सोच ही नहीं पायी कभी भी । मेरे उधर पहुंचने पर एक छोटा बच्चा जो मुझे नहीं पहचानता था लेकिन सुन्दर सा भगवान बालगोपाल की तरह सा ,तो मैंने उसे गोद में उठा लिया और प्यार किया एक टाफ़ी भी दी खाने को तो अगले ही पल वह बच्चा मेरी गोद से कूद कर मां के पास भागा यह चिल्लाता हुआ कि मम्मी कोई बड़ा ग्राहक आया है । ये बात शाय्द पहले भी सुनी होगी पर ध्यान ही नहीं गया था लेकिन आज खादी के कुर्ते ने जहां मुझे यह बात सुनने के लिये कान दिये तो दूसरी ओर उस बच्चे को मेरे बारे में ऐसी सोच कि मैं कोई बड़ा ग्राहक हूं जो उसके लिये टाफ़ी भी लाया हूं । यह बच्चा कल बड़ा होकर परिवार,समाज और देश को क्या देगा आप बड़े मुद्दों पर बात करने वाले लोग सोचिये ,मैंने तो वो कपड़े ही समुन्दर की खाड़ी में फेंक दिये लेकिन उसकी सोच कैसे बदलूं उन कपड़ों के लिये.......................
नमस्ते ,जय भड़ास

गुरुवार, 6 मार्च 2008

लैंगिक विकलांग लोगों को काम दिया लेकिन.....

अभी आप लोग सब खूब अच्छे मूड में रह कर कोई होली का बात कर रहा है और कोई पुराने दोस्त लोगों कि पर हम लोग की तो समस्याएं ही खत्म नहीं होती हैं । NGO चलाने वाले लोग खूब दिखावा करते हैं कि उन्होंने हमारे जैसे लैंगिक विकलांग लोगों को काम दिया लेकिन इस आड़ में वो लोग फ़ारेन फ़ंड्स और डोनेशन की मलाई छानते हैं । हम लोग महीना हर तक रेडलाइट एरिया में जा-जाकर कंडोम बांटते हैं ,ब्लड सैंपल कलेक्ट करने में हैल्प करते हैं और महीने के आखिर में ढ़ाई-तीन हजार रुपए पकड़ा देते हैं ये कह कर कि ये पगार नहीं बल्कि मानधन है । सब शोषण करते हैं तो ये भी कर रहे हैं ये मौका क्यों छोड़ेंगे लेकिन एक बात कि अगर वेश्याएं,भिखारी,हिजड़े समाप्त हो जाएं तो ये सारे NGO चलाने वाले भीख मांगने लगेंगे । मैं चंद्रभूषण भाई और यशवंत सर को थैंक्स कहना चाहती हूं जिन्होंने डा.रूपेश भाई से बात करके हमारी तकलीफ़ को समझा ।
नमस्ते

शनिवार, 1 मार्च 2008

क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........


ए अम्मा,ओ बापू,दीदी और भैया
आपका ही मुन्ना या बबली था
पशु नहीं जन्मा था परिवार में
आपके ही दिल का चुभता सा टुकड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
कोख की धरती पर आपने ही रोपा था
शुक्र और रज से उपजे इस बिरवे को
नौ माह जीवन सत्व चूसा तुमसे माई
फलता भी पर कटी गर्भनाल,जड़ से उखड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
लज्जा का विषय क्यों हूं अम्मा मेरी?
अंधा,बहरा या मनोरोगी तो नहीं था मैं
सारे स्वीकार हैं परिवार समाज में सहज
मैं ही बस ममतामय गोद से बिछुड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
सबके लिए मानव अधिकार हैं दुनिया में
जाति,धर्म,भाषा,क्षेत्र के पंख लिए आप
उड़ते हैं सब कानून के आसमान पर
फिर मैं ही क्यों पंखहीन बेड़ी में जकड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
प्यार है दुलार है सुखी सब संसार है
चाचा,मामा,मौसा जैसे ढेरों रिश्ते हैं
ममता,स्नेह,अनुराग और आसक्ति पर
मैं जैसे एक थोपा हुआ झगड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
दूध से नहाए सब उजले चरित्रवान
साफ स्वच्छ ,निर्लिप्त हर कलंक से
हर सांस पाप कर कर भी सुधरे हैं
ठुकराया दुरदुराया बस मैं ही बिगड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
स्टीफ़न हाकिंग पर गर्व है सबको
चल बोल नहीं सकता,साइंटिस्ट है और मैं?
सभ्य समाज के राजसी वस्त्रों पर
इन्साननुमा दिखने वाला एक चिथड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
लोग मिले समाज बना पीढियां बढ़ चलीं
मैं घाट का पत्थर ठहरा प्रवाहहीन पददलित
बस्तियां बस गईं जनसंख्या विस्फोट हुआ
आप सब आबाद हैं बस मैं ही एक उजड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
अर्धनारीश्वर भी भगवान का रूप मान्य है
हाथी बंदर बैल सब देवतुल्य पूज्य हैं
पेड़ पौधे पत्थर नदी नाले कीड़े तक भी ;
मैं तो मानव होकर भी सबसे पिछड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
 

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आयुषवेद by डॉ.रूपेश श्रीवास्तव