मंगलवार, 27 मई 2008

सपने अंकुरित होने लगे हैं

मैं समझ नहीं पा रही हूं कि मेरे दिल दिमाग में जो तेज सी विचारों कि आंधी चल रही है उसे शब्दों में कैसे लिखूं। मैं कल तक अपने आपको अपने अधूरेपन के लिये खुद को कोसती थी कि कब मौत आयेगी और इस नामुराद शरीर से मुक्त हो सकूंगी। लेकिनब मुझे जब से मुझे मेरे भाई मिले हैं मेरी तो दुनिया ही बदल गई है। हिजड़ा होने का लेबल उतर रहा है ,इस बात का एहसास हो रहा है कि हम तो बस एक प्रकार की विकलांगता के शिकार हैं जो कि किसी भी तरह से कमी नहीं है। तीन दिन पहले जब भाई ने मुझसे कहा कि कोई पत्रकार मुझसे बात करना चाहती है तो मैंने साफ़ मना कर दिया था कि मैं किसी पत्रकार से बात नही करना चाहती हूं क्योंकि इससे पहले मेरा अनुभव बहुत गन्दा रहा जिसे मैंने लिखा भी था । भाई ने बहुत समझाया कि सब लोग एक जैसे तो होते नहीं हैं तो फिर सब पत्रकार एक जैसे क्यों समझती हो? लेकिन वंदना बहन ने भी मेरे बारे में जो कहा उससे मैं इमोशनल हो गई बात करते करते और रोने लगी तो भाई ने बीच में आकर बात को सम्हाला। सच तो ये है कि मैं अपना अतीत भूलना चाहती हूं। दूसरि बात कि जब कोई ये कहता है कि मैंने ब्लागिंग करके बड़ा काम कर दिया तो ऐसा लगता है कि वो मुझे एहसास करा रहा है कि मैं सचमुच मे इस लायक नहीं हूं ये ऐसा मानते हैं वरना ऐसा क्यो बोलते ? क्या ब्लागिंग करना या कम्प्युटर सीखना ऐसा काम है जिसे आसमान से टपकने वालेलोग ही कर पाते है और मैने कर दिया तो चमत्कार हो गया। अब मेरे भीतर एक अजीब सी बात आ रही है जिससे मुझे अडचन हो रही है और खुशी भी हो रही है। पहले मै बड़े मजे से लोगो के आगे हाथ फैला कर एक दो रुपया मांग लेती थी लेकिन अब लगता है कि कुछ गलत हो रहा है मैं इस काम के लिये नहीं हूं। ताली बजाते ही सपना शुरु हो जाता है कि मैं एक बड़े मंच पर मालाएं पहना कर सम्मानित करी जा रही हूं। मैंने स्कूल खोला है जिधर सब लोग मेरे जिसे पढ़ रहे हैं कोई भीख नहीं मागने जा रहा और न ही हमे कोई पुलिस वाला सता रहा है। मै आफ़िस मे बैठ कर भाई के साथ प्लान कर रही हूं कि अब आगे क्या करना है लेकिन अगले ही पल लोकल में चढने वाली भीड का धक्का सपना तोड देता है,फिर मुस्कराते हुए भीख मांगना शुरु कर देती हूं, ये सपना खुली आंखो से देखते हुए कि बस जल्दी ही ये परेशानियां खतम हो जाएंगी। मै और भाई मिल कर सबको पढना सिखाएंगे और भाई बीमार लोगो को दवा दे रहे होंगे साथ मे मै नर्स बन कर खड़ी रहूंगी। ऐसे ही न जाने कितने सपने अंकुरित हो रहे हैं न जाने कब फल लगेगे इन पौधों में? जब मेरे सपनो के पौधों में फल लगने लगेगे तब मेरे मम्मी पापा मुझे टीवी पर देख कर गर्व कर सकेंगे शरमाएगे नहीं।

शनिवार, 3 मई 2008

लैंगिक विकलांग व्यक्ति के हाथ के स्पर्श .......

बचपन से ही हमें हमारे लैंगिक भेद के बारे में एहसास कराया जाता है। वस्त्र, व्यवहारादि लैंगिकता के अनुसार चलता रहता है। इस प्रकार मानव ही नहीं लगभग सारा जीव-जगत दो भागों में बंट जाता है - नर और मादा।जैसे-जैसे किताबी और व्यवहारिक जानकारियां बढ़ती गयीं पता चलता गया कि लैंगिक विभाजन की जो गाढ़ी सी लकीर हमें दिखती है उसे अगर बारीकी से देखा जाए तो वह धूमिल होते-होते विलीन हो जाती है। समाज, दर्शन शास्त्र और साइंस मी धारनाओं में उठापटक होने लगती है। मैं एकबार फिर सोचने लगता हूं कि विश्वनिर्माता ईश्वर स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग? नपुंसकलिंग है या उभयलिंगी?? मुझे पता है कि मेरी ये बात मूर्खता की पराकाष्ठा का गरिष्ठतम विचार है। जीव-जगत को निहारने और जीवन की उत्पत्ति के बारे में लैमार्क, डार्विन और स्टेनले मिलर अदि को समझने के बाद जाना कि जीवन का प्रारंभ जल में हुआ फिर क्रमशः उभयचर, स्थलचर और नभचर बने। आज मैं जानता हूं जीवों की तमाम प्रजातियों के बारे में जिनमें कि लैंगिक प्रजनन होता है किन्तु उनमें लैंगिकता का विषय गौण है। ये जलचर या उभयचर सरीसृप वंशक्रम की आवश्यकतानुसार नर से मादा और मादा से नर में सहजता से बदल जाते हैं। सबसे निकटतम उदाहरण लें तो केंचुए(earth worm) को लीजिये वह एक उभयलिंगी प्राणी है यानि नर और मादा जननांग दोनो ही सक्रिय रूप में उपस्थित होते हैं।
मानवों के समाज की रचना में लैंगिक विकलांगता या उभयलैंगिकता एक ऐसी स्थिति है जहां समाज की सरल ज्यामितीय रैखिक व्यवस्था के दोनो सिरे मिल कर वृत्ताकार सी होती प्रतीत होने लगती है। हिन्दू धर्म में माइथोलाजिकल आधार में आदिदेव भगवान शिव के साथ देवी पार्वती के समन्वित रूप के होने की कथा है जिसे कहा गया है - अर्धनारीश्वर। क्या हमारे पुरावैज्ञानिकों को इस बात को समझा था और शिव-पार्वती के समन्वित रूप अर्धनारीश्वर में सांकेतिक तौर पर निरूपित करा है।
प्रकृति की डिजायनिंग में कहीं कोई अपूर्णता नहीं है, चुम्बकत्त्व से लेकर अंतर्ग्रहीय बलों व अंतःआण्विक बलों से कुदरत सुसज्ज है। मानवों में यदि कोई शिशु किसी तरह की शारीरिक कमी लेकर जन्मता है तो प्रकृति काफी हद तक उस कमी की क्षतिपूर्ति करती है जैसे कि अंधा व्यक्ति सामान्य जनों की अपेक्षा अधिक श्रवण-सक्रिय होता है, गूंगा आदमी देहभाषा में आगे होकर इशारों से काफी अभिव्यक्तियां दर्शा लेता है, पोलियो ग्रस्त बच्चे के हाथ इतने ताकतवर हो जाते हैं कि कई बार वे हाथों के बल चल लेते हैं, हाथ न होने की दशा में बच्चा पैरों से ही सारे काम करने लगता है.........
यदि कोई इंसान सभी ज्ञानेन्द्रियों से सुसज्जित है किन्तु लैंगिक विकलांग है तो क्या कुदरत इस कमी की क्षतिपूर्ति नहीं करती होगी? हमारे शास्त्रों ने "काम" को हमारे शरीर की महत्तम रचनात्मक ऊर्जा माना गया है। इसी सोच का आधार लेकर बृह्मचर्य की एक पुष्ट धारणा हमारी सभ्यता में मौजूद है। बृह्मचर्य साधित रहता है और कामऊर्जा के अधोगमन से कुछ असामान्य नहीं होता अपितु इसी क्रम में प्रजनन होकर वंश आगे चलता रहता है। कामऊर्जा के ऊर्ध्वगमन और साधन से हमारे देश में अनेक योगियों ने अविश्वनीय चमत्कार दिखाए हैं व पूजनीय बने रहे हैं। किन्तु यदि किसी इंसान को प्रकृति ने ही इस उलझाव से मुक्त कर रखा है तो वह संबंधित प्रज्ञापराध से भी प्रभावित नहीं होगा तो फिर ये कामऊर्जा किस तरफ परावर्तित होती है? यदि हम शरीर रचना शास्त्र को देखें तो सारी बात हार्मोन्स पर चली जाती है जिनसे कि दैहिक गठन व मानसिक स्थिति का नियमन होता है। हमें इस बात को नपुंसकता व षंढत्त्व की धारणा से हट कर सोचना होगा। मैंने व्यक्तिगत अध्ययनों में पाया है कि लैंगिक विकलांग जन "ध्यान",धारणा, कल्पनाशीलता जैसे विषयों का आत्मसात सामान्य लोगों की अपेक्षा शीघ्रता से कर लेते हैं। मैंने तमाम रहस्यदर्शियों की ध्यान की कई विधियों को तुलनात्मक अध्ययन के लिये लैंगिक विकलांग लोगों तथा सामान्य जनों पर आजमाया तो लैंगिक विकलांग जन श्रेष्ठतर पाए गये। जरा विचार करिये कि क्या कभी आपने किसी लैंगिक विकलांग व्यक्ति के हाथ के स्पर्श को ध्यान से महसूस करा है उनमें से एक विशेष प्रकार की ऊर्जा का सतत प्रवाह होता रहता है जिसमें कि अत्यंत उपचारक गुण होता है। ये सम्मोहन तथा रेकी जैसे विषयों में यदि प्रशिक्षित करे जाएं तो सामान्य जनो से बहुत अधिक अच्छे परिणाम दे सकते हैं। आवश्यकता है कि आप भी मेरे कोण पर आकर इन्हें देखें और समझें।
 

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